अयोध्या के भगवन श्री रामचंद्र के 10 Powerful पूर्वज

श्री रामचंद्र

भगवान श्री रामचंद्र हिन्दू जनमानस के रोम रोम में बसे हुए है | २२ जनवरी को भगवन श्री रामचंद्र की अयोध्या में प्राणप्रतिष्ठा है जिसकी भव्य तैयारियां हो चुकी है| आज हम इस आर्टिकल में भगवन श्री रामचंद्र के 10 प्रतापी पूर्वजो के बारें में जानेंगे

वैवस्वत मनु
श्री रामचंद्र के पूर्वजो में पहले थे साथ ही पृथ्वी के पहले राजा भी थे| उन्होंने कोसल देश बसाया ओर अयोध्या को उसकी राजधानी बनाया । मत्स्यपुराण में लिखा है कि अपना राज अपने बेटे को सौंप कर मनु मलयपवत पर तपस्या करने चले गये। यहाँ हजारों वर्ष तक तपस्या करने पर ब्रह्मा उनसे प्रसन्न होकर बोले “वर मांग” । राजा उनको प्रणाम करके बोले, “मुझे एक ही बर मांगना है। प्रलयकाल में मुझे जड़चेतन सब की रक्षा की शक्ति मिले” । मत्स्यपुराण में जो इसी अवतार का प्रधान ग्रन्थ में उल्लेखित है कि मत्स्य भगवान ने वैवस्वत मनु को दर्शन दिये थे ।

इश्वाकु
मनु के सबसे बड़े बेटे थे । पुराणों में लिखा है कि इश्वाकु के सौ बेटे थे, जिनमें विकुत्षि, निमि ओर दंड प्रधान थे। विकुत्षि अयोध्या के सिंहासन पर बैठा, निमि ने मिथिलाराज स्थापित किया ओर उससे विदेह ( जनक ) वंश चला। वही तीसरे बेटे दंड इश्वाकु के बेटों में सबसे छोटा था | वह्‌ अनपढ़ निकला और उसने अपने बड़े भाइयो का साथ न किया इससे उसके शरीर में तेज न रहा। पिता ने उसका नाम दंड रक्खा और इन्ही के नाम के आगे पर दंडकारण्य बना |

श्री रामचंद्र

प्रथु
महाभारत में लिखा है कि प्रथु ने सबसे पहले धरती चौरस की इसी से यह प्रथ्वी कहलाती है। कुमारसम्भव में भी इसका उल्लेख है। इस काव्य में.
प्रथ्वी गाय है, इससे देवताओं ने हिमालय को बछरा बना कर चमकतेरत्न और ओषधियाँ दुही थीं। संभव है कि प्रथु ही ने धरती पर हल चलाना सिखाया था जैसा कि इरानियों में जमशेद्‌ ने किया था ।

हरिश्चन्द्र-
श्री रामचंद्र से पहिले अयोध्या के जितने राजाहये उनमें हरिश्चन्द्र सब से प्रसिद्ध हैं। उनकी सत्यप्रियता ऐसी थी कीउसके लिये अपनी प्यारी से प्यारी वस्तु त्याग देने में उन्हें संकोच न हुआ ।इसी विषय पर अनेक हिन्दी नाटक बन गये जो अत्यन्त लोक प्रिय हैं |

सगर –
यह बड़ा प्रतापी राजा था | उसने पहले तो हैहयों ओर तालजंघों को मार भगाया फिर शकों, यवनो, पारदों ओर पहुवों को परास्त किया | सगर ने अश्वमेधयज्ञ के लिये घोड़ा छोड़ दिया। इन्द्र ने उसे चुरा कर वहाँ बाँध दिया जहाँ कपिल मुनि तपस्या करते थे | सगर के बेटे घोड़े के रक्तक
थे; प्रथिवी खोदते वहीं पहुंचे और घोड़ा कपिल के पास देखकर बोले, “यही चोर है, इसे मारो! । इस पर कपिल ने आँख उठा कर ज्योंही उनकी
ओर देखा त्योंही सगर के सब लड़के भस्म हों गये | । सगर ने यह समाचार सुनकर अपने पोते अंशुमान को घोड़ा छुड़ाने के लिये भेजा । अंशुमान से कपिल ने प्रसन्न होकर कहा “लो यह घोड़ा और अपने पितामह को दो ;” ओर यह वर दिया कि “तुम्हारा पोता स्वर्ग से गंगा लायेगा। ” अंशुमान के पोते भगीरथ ने ही तपस्या करके गंगा नदी को पृथ्वी पर अवतरित किया |

अम्बरीष –
राजा अंबरीष भगवान के बड़े भक्त थे। एक समय द्वादशी के दिन महाराज के यहां दुर्वासा जी आये | महाराजा ने नमस्कार विनय के
अनन्तर भोजन के लिये ग्राथना की । ऋषि जी ने कहा कि स्नान कर आये तो भोजन करें | इतना कहकर स्नान को गये । परन्तु उस दिन
ह्वादशी दो ही दंड थी । राजा ने विचार किया कि त्रयोदशी में पारण न करने से शास्त्रज्ञ उल्लंधित होगी । तब ब्राह्मणो ने कहा कि किंचित्‌- मात्र जल पी लीजिये राजा ने ऐसा ही किया । दुर्वासा जी आये और अनुमान से जाना कि इन्होंने जल पिया है। फिर तो अत्यन्त क्रोध कर के अपनी जटा को भूमि में पटक के महा विकराल “कालकृत्या ” उत्पन्न करके उससे कहा कि “इस राजा को भस्म करदे”। इतने पर भी श्री अम्बरीष जी हाथ जोड़े, दुवोसा की प्रसन्नता की अमिलाषा में खड़े ही रहे। “श्री- सुदर्शनचक्र जी” जो श्रीप्रभु की आज्ञानुसार राजा की रक्षार्थ सदा समीप ही रहा करते थे, दुर्वासा के दुःखदायी क्रोध से दुःखित हो केउस कालाश्नि कृत्या को अपने तेज से जला के राख कर दिया और दुर्वासा की ओर भी चले | यह देख दुवासा जी भागे ओर चक्रतेज से अत्यन्त विकल हुये ।

राजा दिलीप –
यह भगबद्धक्त था। इसने देवासुर संग्राम में असुरों को जीता |

श्री रामचंद्र

राजा रघु
यह बड़ा प्रतापी राजा थे ओर द्ग्विजय इन्होने की जिसका वर्णन रघुबंश के चोथे सग में है, सह्य, वंग, कलिंग, पांड्य, केरल, अपरान्तक, पारसीहूण कम्बोज, ओर प्रागज्योतिष देश जीते । पारसीक इरानवासी थे इससे यह पता चलता है है कि रघु ने भारत के बाहर के भी देश जीत लिये थे। श्री रामचंद्र जी ने भी इनका उल्लेख करते हुए कहा था कि ” रघुकुल रीती सदा चली आयी प्राण जाये पर वचन ना जाए “| राजा दिलीप और रानी सुदक्षिणा के पुत्र और अज के पिता रघु बड़े प्रतापी थे। रघु ने दिग्विजय का आरम्भ किया और पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाया और सर्वत्र विजय करते हुए लौटे। आने के बाद विश्वजित यज्ञ किया और अपना सर्वस्व दान में समर्पित कर दिया। उसी बीच महर्षि वरतन्तु के शिष्य कौत्स ऋषि अपने विद्या गुरु को चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ गुरु दक्षिणा में देने के लिए सहायतार्थ पहुंचे। कौत्स ने जब रघु के ख़ाली राजकोष को देखा तो कुछ न माँगने का निश्चय किया परन्तु रघु ने कहा कि वे थोड़ा रुकें और तीन दिन का समय दें। तभी रघु को पता चला कि कुबेर जो कैलाश पर रहते हैं अपना कर भाग नहीं दिया है। रघु ने उन पर चढ़ाई करने का निश्चय किया और उनसे धन प्राप्त करने की योजना बनाई। वे अपने रथ पर सवार हो गए और रथ पर ही रात में सो गए। उधर कुबेर को यह पता चला और वे मारे भय के स्वर्ण मुद्राएं स्वयं पहुंचा गए। प्रातःकाल खबर मिली कि रघु का राजकोष स्वर्ण मुद्राओं से भर गया है।

अज
इनका विवाह विदर्भकुल की राजकुमारी इन्दुमती के साथ हुआ था । जब ये अयोध्या से विदर्भ को जा रहे थे तो रास्ते में इन्हें एक गन्धव से जम्भकास्त्र मिला। यह एक विचित्र हथियार था जिसके चलाने से बैरी की सेना बेसुध हो जाती थी ओर बिना बध किये ही बैरी जीत लिया जाता था।

दशरथ
यह भी बड़े प्रतापी राजा थे । इनके तीन रानियाँ थीं। एक कोशल्या जो सम्भवतः दक्षिण कोशल की राजकुमारी थीं, दूसरी मगध की राजकुमारी सुमित्रा ओर तीसरी केकय देश की केकेयी। इन्होने देवासुर संग्राम में देवताओ की सहायता की थी इनका रथ दसो दिशाओ में चलता था | भगवान श्री रामचंद्र इन्ही के पुत्र थे

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