भक्त सुधन्वा : Unsung Great Warrior of Mahabharat

हम आपके लिए लाये है आज भक्त सुधन्वा की कहानी | जिनकी भगवत भक्ति जितनी अद्भुत थी जिसके लिए भगवन श्री कृष्णा को अपने सारे पुण्य भी अर्पित करने पड़े थे|

महाभारत युद्ध के बाद पांडवो ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया | पांडवो के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा जब चम्पकपुरी राज्य पहुंचा । चम्पकपुरी के महाराज थे हंसध्वज | पांडवो के अश्व की रक्षा कर रहे थे श्रीकृष्ण के प्रिय अर्जुन और उनके पुत्र प्रद्युम्न । विशाल सेना भी उनके साथ में थी । चम्पकपुरी बड़ा ही धर्मनिष्ठ राज्य था जिसका प्रत्येक नागरिक धर्मनिष्ट था । चम्पकपुरी के महाराज हंसध्वज ने श्रीकृष्ण दर्शन की इच्छा से अश्वमेध-यज्ञ के घोड़े को पकड़कर बांधने की आज्ञा दे दी ।

राजा के राजगुरु थे—शंख और लिखित मुनि । उन्होंने घोषणा कि कल प्रात:काल निर्धारित समय पर जो रणभूमि में नहीं पहुंचेगा उसे खौलते तेल के कड़ाहे में डाल दिया जाएगा ।

अगले दिन प्रातः काल सभी योद्धा और राजपुत्र निर्धारित समय पर पहुंच गए |

श्री कृष्णा के परम भक्त सुधन्वा

भक्त सुधन्वा

राजा यह देखकर क्रोधित हो गए कि युद्धभूमि में उनके सबसे छोटे पुत्र सुधन्वा का कहीं पता नहीं था । उसकी खोज के लिए सैनिक भेजे गए ।

रणभूमि में समय पर न पहुंच पाने में सुधन्वा का कोई दोष नहीं था । युद्ध की घोषणा होने पर जब वह माता के पास आज्ञा लेने पहुंचे तो मां ने कहा—‘यदि तुम अर्जुन को युद्ध में परास्त कर सके तो श्रीकृष्ण उसकी रक्षा के लिए अवश्य आएंगे । उनको देखकर तुम डरना नहीं क्योंकि श्रीकृष्ण के सामने युद्ध में मरने वाला मरता नहीं है, वह तो अपनी इक्कीस पीढ़ियों को तार देता है । यदि तुम्हे उनके सम्मुख वीर गति प्राप्त होगी तो मैं दुखी नहीं वरन प्रसन्न होगी ।’

इसके बाद जब सुधन्वा अपनी नव-विवाहिता पत्नी प्रभावती के पास पहुंचे तो उनकी पत्नी ने कहा—‘मैं जानती हूँ कि श्रीकृष्ण के समीप जाकर कोई इस संसार में लौटता नहीं; परन्तु आपके चले जाने पर एक पुत्र मेरे पास होना चाहिए ।’

वो जान चुकी थी कि उसे पति का दर्शन पुन: नहीं होने वाला है । पत्नी का आग्रह सुधन्वा ठुकरा ना सके । वहां से स्नान कर कवच धारण कर जब वे चले तो रास्ते में उन्हें सैनिक मिल गए और वे उन्हें राजा के सम्मुख ले आए ।

जब सुधन्वा स्थल पर पहुंचे तो राजपुरोहित ने कहा कि नियम तो नियम होता है इन्हे कड़ाहे में डालना ही होगा |

तेल का कड़ाह अग्नि पर चढ़ा दिया गया; और सुधन्वा स्वयं खौलते कड़ाहे में उतर गए ।

सुधन्वा ने गले में तुलसी की माला धारण की और हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने लगा—‘गोविन्द ! मुझे देह का मोह नहीं है, बस एक ही दु:ख है कि आपके श्रीचरणों का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुआ । लोग कहेंगे कि सुधन्वा तेल में उबल कर मरा । मुझे अग्निदाह से बचाइए और इस देह को अपने श्रीचरणों में गिरने दीजिए ।’

ये स्मरन्ति च गोविन्दं सर्वकामफलप्रदम् ।
तापत्रय विनिर्मुक्ता जायन्ते दु:खवर्जिता: ।।

अर्थात्—जो लोग समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले, समस्त फलों के दाता गोविन्द का स्मरण करते हैं, वे तीनों तापों से छूट कर सदा के लिए दु:खरहित हो जाते हैं ।

भक्त सुधन्वा जिसके लिए खौलता तेल भी शीतल हो गया

सुधन्वा के लिए खौलता तेल भी शीतल हो गया और उनका एक रोम भी न झुलसा; यह देखकर सभी को संदेह हुआ कि तेल गरम है भी या नहीं ! यह जानने के लिए पुरोहितों ने एक नारियल तेल में डलवाया । तेल में गिरते ही नारियल तड़ाक् से फूटा और उसके टुकड़े उछलकर राजा के पुरोहित शंख व लिखित के सिर पर जाकर तेजी से लगे ।

सुधन्वा को तेल से निकाला गया । प्रायश्चित करने के लिए शंख मुनि उसी उबलते हुए तेल के कड़ाहे में कूद पड़े; किन्तु सुधन्वा के प्रभाव से उनके लिए भी तेल शीतल हो गया । मुनि ने सुधन्वा को गले से लगा लिया । तब मुनि के साथ सुधन्वा तेल के कड़ाहे से बाहर आए ।

राजा ने सुधन्वा से कहा—‘श्रीकृष्ण जिसके रथ का सारथ्य करते हैं, उन गाण्डीवधारी अर्जुन को तुम्हीं संतुष्ट कर सकते हो; अत: तुम्हीं सेना का नेतृत्व करो ।’

सुधन्वा युद्ध के लिए चल दिए । सुधन्वा के नेतृत्व में चम्पकपुरी की सेना का पाण्डव सेना के साथ घोर युद्ध हुआ । सुधन्वा ने कीर्तिवर्मा ,सात्विकी श्री कृष्णा के पुत्र प्रद्युम्ना को परास्त किया , सेना में हाहाकार मच गया । अंत में अर्जुन को युद्ध के लिए आना पड़ा ।

भक्त सुधन्वा और अर्जुन के बीच युद्ध

अर्जुन को उत्तेजित करते हुए सुधन्वा ने कहा—‘श्रीकृष्ण आपके रथ के सारथी हैं; इसलिए आप विजयी होते हैं । आपने अपने सारथि को आज कहां छोड़ दिया ! कहीं मेरे साथ युद्ध करने के कारण ही तो उन्होंने आपका साथ नहीं छोड़ दिया है ? गोविन्द के बिना आप मुझसे युद्ध कर सकेंगे ?’

भक्त सुधन्वा

सुधन्वा ने ऐसी बाणों की वर्षा की कि अर्जुन घायल हो गए और उनका सारथी मारा गया । अब सुधन्वा ने अर्जुन को ललकारते हुए कहा—‘युद्ध से भागना नहीं, अपने सर्व-समर्थ सारथि (श्रीकृष्ण) का स्मरण कर उन्हें बुला लीजिए ।’

अर्जुन ने श्रीकृष्ण का स्मरण किया, श्रीकृष्ण को कहीं से आना तो था नहीं, वे तुरंत प्रकट हो गए और रथ की डोरी संभाल ली । सुधन्वा और अर्जुन ने उन्हें एक साथ प्रणाम किया । सुधन्वा ने श्री कृष्णा के दर्शन करते ही अपने को धन्य माना ।

फिर सुधन्वा ने अर्जुन को ललकारते हुए बोला —‘अब तो भगवन आपके सारथी हो गए हैं, अब मुझ पर विजय पाने के लिए कोई प्रतिज्ञा कीजिए ।’

अर्जुन की प्रतिज्ञा

अर्जुनको भी आवेश आ गया। उन्होंने तीन बाण निकालकर प्रतिज्ञा की ‘इन तीन बाणोंसे यदि मैं तेरा सुन्दर मस्तक न काट दूं तो मेरे पूर्वज पुण्यहीन होकर नरकमे गिर पड़े।’

अर्जुनकी प्रतिज्ञा सुनकर भक्त सुधन्वा ने हाथ उठाकर कहा- ‘ये श्रीकृष्ण साक्षी हैं। इनके सामने ही मैं तुम्हारे इन तीनों बाणोंको काट न दूँ तो मुझे घोर गति प्राप्त हो।

भगवान श्री कृष्णा ने कहा- ‘अर्जुन! सुधन्वा बहुत वीर है। मुझसे पूछे बिना प्रतिज्ञा करके तुमने अच्छा नहीं किया। जयद्रथ वधके समय तुम्हारी प्रतिज्ञाने कितना संकट उपस्थित किया था, यह तुम भूल कैसे गये। सुधन्वा ‘एकपत्नीव्रत’ के प्रभावसे महान है और इस विषयमें हम दोनों पिछड़े हुए हैं।’

अर्जुनने कहा- ‘गोविन्द। आप आ गये हैं, फिर मुझे चिन्ता ही क्या। जबतक आपके हाथमें मेरे रथकी डोरी है, मुझे कौन संकट में डाल सकता है। मेरी प्रतिज्ञा अवश्य पूरी होगी।’
अर्जुन ने पहला बाण चढ़ाया। भगवान ने संकल्प किया कि ‘‘गोवद्र्धन उठाने और ब्रज की रक्षा करने के पुण्य को मैं अर्जुन के बाण के साथ जोड़ता हूं।’’
भक्त सुधन्वा ने भी संकल्प लिया कि एक पत्नी व्रत पालने का मेरा पुण्य भी इस अस्त्र के साथ जुड़े। सुधन्वा ने गोवर्धनधारी श्रीकृष्णका स्मरण करके बाण मारा और अर्जुनका बाण दो टुकड़े होकर गिर पड़ा।
दूसरा अस्त्र फिर उठा। इस बार श्री कृष्ण ने अपना पुण्य उसके साथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘मगरमछ से गज को बचाने और द्रौपदी की लाज बचाने वाला पुण्य अर्जुन के बाण के साथ जुड़ जाए।’’

दूसरी ओर भक्त सुधन्वा ने भी वैसा ही किया, ‘‘मैंने नीतिपूर्वक ही उपार्जन किया है और चरित्र के किसी भी पक्ष में त्रुटि न आने दी हो तो वह पुण्य इस अस्त्र के साथ जुड़ जाए।’’

इस बार भी दोनों अस्त्र आकाश में टकराए और सुधन्वा के बाण से अर्जुन का बाण आकाश में ही कटकर धाराशायी हो गया।

अब तीसरे बाण को श्री कृष्णा ने अपने रामावतारका पूरा पुण्य दिया। बाणके पिछले भागमें ब्रह्माजीको तथा मध्यमें काल को प्रतिष्ठित करके नोक पर वे स्वयं एक रूप में बैठे| अर्जुनने यह बाण भगवानके आदेश धनुष पर चढ़ाया।

भक्त सुधन्वा ने नतमस्तक होते हुए कहा—‘मेरे स्वामी ! मैं जान गया कि आप स्वयं मेरा वध करने, मेरे कण्ठ का स्पर्श करके मुझे धन्य करने बाण पर बैठ कर आ रहे हैं । आओ नाथ ! मुझे कृतार्थ करो । अर्जुन, त्रिभुवनपति श्रीकृष्ण तुम्हारे बाण को शक्ति देने के लिए केवल अपना पुण्य ही नहीं देते, उस पर स्वयं आरुढ़ होते हैं; अत: विजय तो निश्चित ही तुम्हारी है; लेकिन श्रीकृष्ण-कृपा से मैं भी तुम्हारे इस बाण को अवश्य काट दूंगा ।’

भक्त सुधन्वा ने कहा, ‘‘अगर मैंने स्वार्थ का क्षण भर चिंतन किए बिना मन को निरंतर परमार्थ में रखा हो तो मेरा वह पुण्य बाण के साथ जुड़े।’’
भक्त सुधन्वा की प्रतिज्ञा पूरी हुई । अब भगवान को अर्जुन का प्रण पूरा करना था । कटे बाण का अग्रभाग गिरा नहीं उसने सुधन्वा का मस्तक काट दिया । मस्तकहीन सुधन्वा के शरीर ने पाण्डव सेना को तहस-नहस कर दिया ।

भक्त सुधन्वा का कटा मस्तक ‘गोविन्द ! मुकुन्द ! हरि !’ पुकारता हुआ श्रीकृष्ण के चरणों पर जा गिरा । श्रीकृष्ण ने झट से उस सिर को दोनों हाथों में उठा लिया । उसी समय उस मुख से एक ज्योति निकली और सबके देखते श्रीकृष्ण के श्रीमुख में लीन हो गई ।

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